Friday, 7 July 2017

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Thursday, 6 July 2017

परिचय: कथक नृत्य

कथक नृत्य

उत्तर भारत की प्रसिद्ध भारतीय नृत्य शैली के रूप में “कथक नृत्य” विश्व विख्यात है। कथक नृत्य का इतिहास अनेक परिधियों से घिरा हुआ है। सभी विद्वानों में इसके जन्म को लेकर विभिन्न मत है , परन्तु ये निश्चित है की कथक मंदिरों का नृत्य है तथा यह एक प्राचीन नृत्य शैली है।
कथक शब्द का प्रयोग प्राचीन महाकाव्यों में प्राप्त होता है । कथक ऐकल नृत्य है , परन्तु अभिनय प्रयोगों के इस दौर में नृत्य , नाटिकाएँ तथा समूह में भी नृत्य होने लगे हैं।भारत में मुस्लिम आक्रमनकारियों के आने से कथक नृत्य पर भी इसकी गहरी छाप पड़ी । नृत्य शैली में पतन भी आया परन्तु कथक नृत्य को महान गुरुओं जैसे ठाकुर प्रसाद जी , बिंदादीन महाराज जी , दुर्गा प्रसाद जी , इत्यादि ने कठोर परिश्रम द्वारा तथा अथक प्रयासों द्वारा समाज में सम्मानीय स्थान दिलवाया।
कथक नृत्य अपने प्रस्तुतीकरण जितना स्वतंत्र है उतनी कोई भी अन्य नृत्यशैली माही है। प्रत्येक नर्तक कथक नृत्य अपने अलग अलग अन्दाज़ में  प्रारम्भ करता है और अपनी रुचि के अनुसार उसका संयोजन करता है। मोटे तौर पर कथक का प्रदर्शनुसार विभाजन दो प्रकार से किया गया है । एक है उसका नृत्त पक्ष और दूसरा है अभिनय पक्ष।
नृत् क्रम में नर्तक सबसे पहले मंच पर “ठाट” बाँधता है फिर “सलामी ” तथा “आमद” जो कि नृत्य वर्णों की रचना होती है , प्रस्तुत करता है। फिर टुकड़े , परमेलू , चक्करदार , परन करता है।
कथक का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग माना जाता है “भावाभिनय”;जो अपने आप में ही बोलता है भाव पूर्ण अभिनय ।इस पक्ष के अंदर नर्तक “गत” तथा “भाव” में ठुमरी, भजन इत्यादि करता है जो बहुत ही मनमोहक होता है। ठुमरी को गाकर उस पर नृत्य करना इस नृत्य की विशेषता है। इसके अंतर्गत एक पंक्ति पर अनेक प्रकार से नृत्य करके दिखाया जाता है । सम्पूर्ण नृत्य में श्रिंगार रस का वर्चस्व होता है तथा अन्य रस सहारा ले कर यथा स्थान प्रकट किए जाते हैं।
कथक नृत्य में पाओं का संचालन विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है। कठिन तालों में तेज़ गति में नृत्य करना सबको आश्चर्यचकित कर देता है।
कथक नृत्य की वेशभूषा पर भी मुग़लकालीन दरबारी प्रभाव है। पुरुष नर्तक पैजामा , कुर्ता या अंगरखा पहनते हैं और कमर में दुपट्टा बाँधते हैं।